चिकित्सा क्षेत्र को बेहतर बनाने आवश्यकता

वैशिवक प्रतिस्पर्धा की जब बात आती है तो हम आज भी विभिन्न क्षेत्रों में दुनिया के तमाम छोटे देशों से पीछे हैं। खासकर चिकित्सा के क्षेत्र में हमारे पास आज भी ऐसे संसाधन नही हैं जिनसे हम यह कह सकें कि हम गांव हो या शहर सभी जगह के लोगों को भरपूर उपचार दे सकते हैं। कोरोना से पहले आयी तमाम महामारी के दौर में हमने बेहतर करने की कोई सीख नही ली तो अब फिर से वो समय आ गया जब हमें चिकित्सा  क्षेत्र में बेहतरी के विषय में दृढ़ संकल्प लेना होगा। इस बार की महामारी ने हमें एक सीख अवश्य दी है कि जितना ध्यान हम सीमा की सुरक्षा पर देते हैं उससे ज्यादा ध्यान हमें देश की चिकित्सा स्वास्थ्य व्यवस्था पर देना होगा।  अर्थात देश का स्वास्थ्य बजट किसी भी कीमत पर रक्षा बजट से कम महत्वपूर्ण न माना जाये।
(सुधीर त्रिपाठी) ।
आबादी के मामले दुनिया में चीन के बाद दूसरे स्थान पर गिने जाने वाले हमारे देश भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतर उपलब्धता के विषय में जानकारी सभी देशवासियों को कोरोना के इस दौर में हो गयी है। वैक्सीन की छोड़ो आज हम फौरी रूप से चिकित्सा में प्रयोग आने वाले संसाधनों को लेकर भी आत्म निर्भर नही हैं। हमारे पास वेंटीलेटर मास्क एवं सेनेटाइजर भी प्रारम्भिक दिनों में पर्याप्त रूप में नही देखे गये। हमारे सरकारी स्वास्थ्य तंत्र की जिस तरह की व्यवस्थायें इस दौर में देखने को मिल रही हैं उससे देश में अब तक स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति सरकारों की गम्भीरता खुल कर सामने आ गयी है। आजादी के सात दशक बाद भी हम देश के नागरिकों को उनके स्वास्थ्य एवं चिकित्सा को पूरा भरोसा दे पाने में अस्मर्थ हैं। कारण यह कि हमारी सरकारों ने स्वास्थ्य सेवाओं को गम्भीरता से लिया ही नही। हर वर्ष बनने वाले बजट में अपने देश के स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का जो बजट तैयार होता है जीडीपी  के हिसाब से वह दुनिया के छोटे देशों मालद्वीप,नेपाल, भूटान आदि देशों से भी कम है। ऐसे में इस तुलना में इतनी बढ़ी आबादी के देश में नागरिकों का स्वास्थ्य भगवान भरोसे चल रहा है। यह कहना अतिश्योकि नही होगी।
सरकारें कुछ भी कहें पर कोराना के दौर में यह प्रमाणित हो गया है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं के मामलें में आज भी पूरी तरह से सक्षम नही हैं। इस दौर में हमारे अस्पतालों के संसाधनों की जो पोल खुलकर सामने आयी उसके बाद तो यही लग रहा है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर किसी सरकार ने गम्भीरता से ध्यान नही दिया। दुनियां के तमाम ऐसे देश हैं जहां नागरिकों की स्वास्थ्य सुरक्षा को लेकर वहां की सरकार जिम्मेदारी लिये हुये हैं पर अपने देश में आज भी चिकित्सा के जो हाल हैं वो किसी से छिपे नही हैं। महानगरों से लेकर सूूदर ग्रामीण क्षेत्रों में अस्पतालों की इमारतें तो बनी होंगी पर वहां पर चिकित्सा कर्मियों की संख्या या उपस्थिती मानकों से बहुत कम है या कहें है ही नही। ऐसे में बिना चिकित्साकर्मियों की चिकित्सा कैसे होगी यही सोचने लायक है। हम कुछ और सोंचे पहले इसी बिन्दु पर चर्चा कर लें कि हमारे यहां मानक के अनरूप चिकित्सक हैं या नही। विश्व स्वास्थ्य संगठन(हऌड) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में 11082 लोगों पर एक एलोपैथिक चिकित्सक है। जबकि हऌड के मानक अनुसार 1000 पर एक चिकित्सक होना चाहिये। अगर बात सरकारी और निजी चिकित्सालयों की मिलाकर भी कर ली जाये तो हमारे यहां 1612 व्यक्तियों पर एक चिकित्सक है। दोनों मिलाकर भी हम विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों को आज भी पूरा नही कर रहे। एमसीआई की एक रिपोर्ट बताती है कि 2017 तक वहां पर 10.41 लाख चिकित्सक पंजीकृत थे जिसमें मात्र 1.2 लाख चिकित्सक सरकारी क्षेत्र में सेवा करने गये। ऐसा क्यों? क्या हमारी ऐसी नीतियां है जिनसे पब्लिक सेक्टर में काम करने के बजाय चिकित्सक निजी क्षेत्रों में काम करने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहे हैं। यहां इस विषय पर सोचना इसलिये बेहद आवश्यक है कि चिकित्सक ही चिकित्सा क्षेत्र की रीढ़ कही जाती है जब हमारी रीढ़ ही कमजोर होगी तो फिर बाकी भाग को मजबूत कैसे कह सकते हैं। वहीं दूसरी तरफ हमारी चर्चा अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर पर होनी चाहिये। हर देश अपनी अर्थव्यवस्था के अनरूप अपने विभिन्न क्षेत्रों के बेहतरी के लिये सालाना बजट तैयार करते हैं। हमारे देश में भी यही प्रक्रिया है पर यहां का जो वार्षिक स्वास्थ्य एवं चिकित्सा बजट है वह आबादी के हिसाब से सही नही कहा जा सकता। सरकार स्वास्थ्य के नाम पर जीडीपी का 1 प्रतिशत खर्च करना स्वीकृत करती है जबकि विश्व के अन्य छोटे देशो में भी इससे ज्यादा का बजट रहता है। हमारे यहां पर 2019-20 में 62398 करोड़ का बजट स्वीकृत हुआ था तथा 2020-21के लिये 69000 करोड़ की स्वीकृति हुयी है। जिसमें से 6400 करोड़ प्रधानमंत्री जन अरोग्य योजना हेतु निर्धारित किया गया है। सरकार ने स्वास्थ्य बीमा योजना के लिये पिछली साल 156 करोड़ दिये थे। पर इस साल बजट में भारी कटौती कर दी और महज 29 करोड़ ही दिये। सरकार आयुष्मान भारत की बात करती है पर बजट पर ध्यान दें तो यह बजट इस बार बढ़ाया नही गया है। इसे पूर्ववत ही रखा गया है। एनएचआरएम का बजट इस बार पिछली साल 27039 करोड़ के बराबर ही निर्धारित किया है। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जिस प्रकार की संक्रामक बीमारी से हम लोग इस समय लड़ रहे हैं कुछ ऐसी बीमारियां जो संक्रामक है इनमें मलेरिया,वायरल हैपेटाइटिस/पीलिया,गंभीर डायरिया,पेचिश,डेंगू बुखार, चिकिनगुनिया,मीजल्स, टायफायड,हुकवर्म इंफेक्शन, फाइलारियासिस तथा टीवी आदि शामिल है। इन तमाम बीमारियों से लड़ने के लिये सरकार ने गत वर्ष 5003 करोड़ का आवंटन किया था जबकि इस साल के बजट में इनसे लड़ने लिये 4459.35 करोड़ निर्धारित किये गये। इस प्रकार संक्रामक बीमारियों से बचाव हेतु बजट में कटौती की गयी है। स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के मामले में बजट में सरकार के निर्णय अपने आप में चिंता करने जैसे हैं। और तो और एम्स  दिल्ली एवं कुछ पीजीआई के बजट में भी कटौती की गयी थी ऐसा लग रहा है सरकारों ने स्वास्थ्य सेवाओं को गम्भीरता से लिया ही नही। महानगरों की यदि छोड़े तथा छोटे नगरों के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों तथा जिला मुख्यालय के जिला अस्पतालों के हाल जाने तो वर्षो से वहां पर तमाम चिकित्सक नही हैं। इस बात के दावे किये जाते हैं कि देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई सरकारी अस्पताल नही होगा जहां पर मानक के अनुसार चिकित्सक एवं चिकित्सा क र्मियों की संतृप्तता हो। क्या कारण है कि सरकारी क्षेत्र के प्रति चिकित्सकों का नजरिया बदल रहा है। उनका झुकाव निजि क्षेत्र के चिकित्सालयों के प्रति हो रहा है। सरकार को अपनी पहले बनायी गयी नीतियों में बदलाव करते हुये नयी पीढ़ी के चिकित्सकों को पब्लिक सेक्टर में आने के लिये आंमत्रित करना चाहिये। जंहा सरकार पी-3 माडल पर काम करने का मन बना रही है तो उससे शहर क्षेत्र का तो हित हो जायेगा पर उन ग्रामीण क्षेत्र का हाल तो जस का तस रहेगा क्यों निजी क्षेत्र वाले ग्रामीण क्षेत्रों तो नही जायेंगे। ऐसे में यह योजना पूरी तरह से कारगर नही सकती है। सरकार को खुद ही अपना इंफ्रास्ट्रक्चर नवीन रूप में तैयार कर मजबूत करना चाहिये। ऐसे चिकित्सा उपकरण जो हमेशा जरूरी हैं उनके उत्पादन के लिये यहीं पर फार्मा या सामान्य इकाईयों को आमंत्रित करना चाहिये। जिनमें वेंटिलेटर प्रमुख है। अक्सर इस बात की जानकारी होती है कि वेंटीलेटर के अभाव में एक मरीज के साथ अनहोनी हो गयी। आखिर यह वेंटीलेटर क्यों नही सभी केन्द्रों पर पहुंंच सक ते। मास्क एवं सेनेटाइजर जैसे जरूरी सामान का उत्पादन अब देश में ही भारी मात्रा में कराया जाये ताकि आने वाले समय में जीवन का अभिन्न अंग बनने जा रहे दोनो आसानी से जनमानस को मिल सके। संक्रामक बीमारियां पहले भी आयीं पर उन सबके लिये कोई न कोई कारगर उपाय हुये। पर हमने भविष्य के खतरे को समय पर नही भांपा तथा यूंही स्वास्थ्य सेवायें चलती रही। आज जब समूचे देश में कोरोना संकट है पता नही कब यह संकट खत्म होगा। इसके अलावा कल किसी ने नही देखा कल कौन सा वायरस फिर हमें परेशान कर दे  तो फिर क्या लॉकडाउन करके ही हम घर में दुबक जायेंगें। विज्ञान के युग में आज एक वायरस के कारण पूरी दुनिया एक तरह से  ठहर गयी है। ऐसे में भविष्य को सुरक्षित करने के लिये हमें चिकित्सा क्षेत्र में नये अनुसंधान करने होंगे। इसके अलावा सभी चिकित्सालयों को आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से लैस करते हुये उनके कुशल संचालन के लिये सरकार हर कीमत पर ध्यान दे। जितनी जरूरी देश की सीमा की सुरक्षा है उतना ही जरूरी देश में रहे रहे लोग का जीवन भी है। तभी तो कहा जाता है जान है तो जहान है।